शिष्य बना प्रशंसा का पात्र

गंगा किनारे गुरु अभेंद्र का आश्रम था। एक बार देश में भीषण अकाल पड़ा। गुरु अभेंद्र ने संकटग्रस्तों की मदद के उद्देश्य से अपने तीन शिष्यों को बुलाकर कहा – ऐसे संकट के समय में हमें अकाल पीड़ितों की सेवा करनी चाहिए। तुम लोग अलग-अलग क्षेत्रों में जाकर भूखों को भोजन कराओ।
उनकी बात सुनकर शिष्य बोले – गुरुजी, हम इतने सारे लोगों को भोजन कैसे कराएंगे? हमारे पास न तो अन्न भंडार है और न अनाज खरीदने के लिए धन। तब गुरु अभेंद्र ने उन्हें एक थाली देते हुए कहा – यह थाली दिव्य है। तुम जितना भोजन मांगोगे, यह उतना भोजन उपलब्ध कराएगी। तीनों शिष्य थाली लेकर निकल पड़े। दो शिष्य एक स्थान पर बैठ गए। उधर से जो भी गुजरता, उसे वे भोजन कराते। किंतु तीसरा शिष्य मोहन बैठा नहीं, बल्कि घूम-घूमकर भूखों को खोजता रहा और उन्हें खाना बांटता रहा। कुछ दिनों बाद जब तीनों आश्रम लौटे, तो गुरु ने मोहन की खूब प्रशंसा की। दोनों शिष्यों को यह अजीब लगा।
उन्होंने पूछा – गुरुदेव, हमने भी तो अकाल पीड़ितों की सेवा की है। फिर मोहन की ही प्रशंसा क्यों गुरु ने उत्तार दिया – तुमने एक ही स्थान पर बैठकर पीडि़तों की सहायता की। ऐसा करने से वे लोग तुम्हारी मदद से वंचित रह गए, जो चलकर तुम्हारे पास आने में असमर्थ थे। जबकि मोहन ने लोगों के पास जा-जाकर उन्हें भोजन कराया। उसकी सहायता अधिकतम लोगों तक पहुंची, इसलिए उसकी सेवा अधिक प्रशंसा के योग्य है। कथा का सार यह है कि वही सेवा अधिक सराहनीय होती है, जो आगे बढ़कर की जाए।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Latest Articles