विक्रम विश्वविद्यालय अगले साल से दीक्षा समारोह मानद उपाधि देगा। कार्य परिषद के मौखिक फैसले को अमली जामा पहनाने के लिए कुलपति प्रो.
अखिलेशकुमार पांडेय ने तैयारी शुरू की है। कहा है कि अंतिम बार विश्वविद्यालय ने साल-2007 में जूना अखाड़े के पीठाधीश्वर एवं आचार्य महामंडलेश्वर अवधेशानंदगिरी सहित लेफ्टिनेंट कर्नल राजवर्धनसिंह राठौर, भारत के मुख्य न्यायाधीश रमेशचंद्र लहोटी, सोमयाजी दीक्षित, इफको के प्रबंध निदेशक रहे उदयशंकर अवस्थी, पत्रकार आलोक मेहता और पद्मभूषण चिकित्सा विज्ञानी डा. अनिल कोहली को मानद उपाधियां प्रदान की थी। समारोह में निजी कारणों से आचार्य महामंडलेश्वर नहीं आए थे तो उन्हें अगले साल आश्रम जाकर उपाधि प्रदान की थी। इसके पहले भी कई प्रतिभाओं को मानद उपाधि दी है, जिनका रिकार्ड निकलवाया जा रहा है।
मालूम हो कि मानद उपाधि, विश्वविद्यालय द्वारा किसी शख्स को उसके उत्कृष्ट काम या समाज में बेहतरीन योगदान देने के लिए दिया जाने वाला अकादमिक सम्मान है, जिससे विश्वविद्यालय की भी गरिमा बढ़ती है। इसकी शुरुआत 15वीं शताब्दी में आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से हुई थी। विक्रम विश्वविद्यालय ने भी अपनी स्थापना वर्ष 1957 के कुछ वर्षों बाद इसकी शुरुआत की थी। बाद में किन्हीं कारणों से 32 वर्षों तक दीक्षा समारोह नहीं हुआ।
साल- 2007 में तत्कालीन कुलपति प्रो. रामराजेश मिश्र के प्रयास से सात प्रतिष्ठित लोगों को मानद उपाधियां प्रदान करने की सहमति बनी और प्रदान की भी गई। उसके बाद मानद उपाधि वितरण में सत्ता का हस्तक्षेप बढ़ा और भ्रष्टाचार के आरोप लगने तो मानद उपाधियां देना बंद कर दिया। अब डेढ़ दशक बाद फिर मानद उपाधि देने का मौखिक फैसला कार्य परिषद ने लिया है। कुलपति प्रो. अखिलेशकुमार पांडेय ने कहा है कि अभी मानव उपाधि दिए जाने के लिए कार्य परिषद सदस्यों ने मौखिक सहमती दी है।
यह भी जानिए
– मानद उपाधि देने का उद्देश्य समाज के उस शख्स को सम्मानित करना है, जिसने समाज उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान दिया हो। ऐसे शख्स को मानद उपाधि देकर विश्वविद्यालय का सम्मान बढ़ता है। इसलिए ऐसी शख्सियत के नाम तय करते वक्त इस बात का विशेष ख्याल रखा जाता है। पीएचडी की अकादमिक उपाधि प्रोफेसर बनने सहित अन्य मुकाम हासिल करने में सहायक है।
– पहले मानद उपाधि देने की प्रक्रिया बहुत गुप्त होती थी। नाम का चयन करने के लिए कई कमेटी बनती थी और जब सभी कमेटी से उस नाम पर अनुमोदन हो जाता था, तब जाकर नाम सार्वजनिक होता था।
– कालांतर में नेताओं और शिक्षा संस्थान को रैंकिंग प्रदान करने वालों, शिक्षण,परीक्षा और शोध के मानकों की निगरानी करने वालों को पीएचडी की मानद उपाधि प्रदान की जाती रही है।
– मानद उपाधि पाने वाले लोग अपने नाम के आगे डाक्टर नहीं लगा सकते। अगर लगाते हैं तो उसके आगे मानद जरूर लिखते हैं।