सबसे बढ़कर ज़िंदगी है और उससे बढ़कर है हमारी सांसें, इसलिए हर सांस का मज़ा लीजिए जब तक सांसें साथ हैं

एम्स, नई दिल्ली, 2003। सी-5 वार्ड में भर्ती थी। दरभंगा बिहार से भेजी गई थी। उम्र बारह वर्ष। उसने मुझे जीवन का वह मंत्र दिया कि दुश्वारियां अब दुःख नहीं देतीं। उसका दिया मंत्र याद कर लो, और दुःख छू-मंतर !

उसे गिलैन-बैरे सिंड्रोम (जीबीएस) हुआ था। इस बीमारी में अचानक शरीर लकवाग्रस्त हो जाता है। वह लड़की दोनों हाथ-पैर बिलकुल भी हिला नहीं सकती थी। साथ ही छाती और सांस की मांसपेशियों के काम नहीं करने से हमें उसे वेंटीलेटर पर रखना पड़ा। इस बीमारी में होश और बुद्धिमत्ता पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है। ज़्यादातर रोगी दवाओं से जल्दी ही ठीक हो जाते हैं लेकिन कुछ प्रतिशत मरीज़ ठीक नहीं हो पाते हैं। एक हफ़्ते वेंटीलेटर पर रखने के बाद हम समझ गए थे कि ये बच्ची अब लम्बे समय तक वेंटीलेटर पर रहेगी।

हम सब आसानी से सांस ले पाते हैं, बिना ताक़त लगाए या कोशिश किए। चूंकि ये आसानी से हो पा रहा है इसलिए हम सांस लेने की इस प्रक्रिया को सफलता नहीं मानते। लेकिन इस बच्ची को एक सांस सफलता से लेनी थी। उसके लिए स्कूल में ए-ग्रेड लाना नहीं, बल्कि कुछ सांसें अच्छे से ले सकना सफलता थी।

वेंटीलेटर पर लम्बा समय लगने की वजह से हमने ट्रैकियोस्टोमी (गले वाले हिस्से से सांस की नली में छेद करके सांस के लिए रास्ता बनाना) का निर्णय लिया।

वेंटीलेटर को सांस के उस नए रास्ते से जोड़ा। अब नली उसके मुंह से निकाल दी गई थी और कृत्रिम सांसें गले वाले रास्ते से दी जा रही थीं। वह वेंटीलेटर पर होती आंखें खोले हुए। शरीर के अंगों में सिर्फ़ पलकें और होंठ हिला सकती थी, बोल भी नहीं सकती थी। सुबह राउंड के समय मैं उससे रोज़ पूछता, ‘बेटा, कैसी हो?’ रोज़ धीमे से मुस्कराती और पलकों को हौले-से इस तरह झपकाती कि मैं समझ जाता कि उसका मतलब है- ‘ठीक हूं।’

वह दो महीने तक ऐसे ही वेंटीलेटर पर रही। ढेरों इंजेक्शन लगते, ढेरों तकलीफ़देह प्रक्रियाएं लेकिन जब भी पूछो पलकों से कहती, ठीक हूं।

मैंने इतना सहनशील और आशावादी मस्तिष्क जीवन में कभी नहीं देखा। धैर्य, सहनशीलता, उम्मीद न हारना, स्वयं को प्रकृति के निर्णयों के प्रति समर्पित कर देना, अपना रोना न रोना, देखभाल करने वालों पर भरोसा जैसे कितने ही गूढ़ दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक रहस्य उसके इस छोटे-से जवाब में निहित होते कि ‘ठीक हूं’।

उसने कभी इशारा नहीं किया कि ये निकाल दो या अब बस करो। उसका आशावादी दिमाग़ समझता था कि ये लोग कोशिश कर रहे हैं। धैर्य रखना होगा। सच ये था कि उसके कभी ठीक न हो सकने की आशंका बहुत थी। पर हमेशा कहती, मैं ठीक हूं।

उसकी मां रोती रहती, लेकिन उसकी आंखों में कभी आंसू नहीं दिखे। मां ने बताया कि वह शिक्षक बनना चाहती है।

दो महीने वेंटीलेटर पर रहने के बाद उसका धैर्य रंग ले ही आया। उसकी सांस लेने की क्षमता बढ़ने लगी और चार महीने बाद वह डिस्चार्ज भी हो गई। सांस की नली का रास्ता बंद होने के बाद वह बोलने लगी थी- एकदम बातूनी और हंसमुख। आजू-बाज़ू के बेड वालों से उसकी अच्छी दोस्ती हो गई थी, जीवन से कोई शिकायत नहीं। मेरे ही साथ ये क्यों हुआ जैसा कोई प्रश्न नहीं।

जाते समय मैंने पूछा, ‘तुम्हें बड़ी होकर क्या बनना है?’

मैं अपेक्षा कर रहा था कि कहेगी ‘शिक्षक’ लेकिन उसने मुस्कराकर आंखें बंद कर लीं और फिर गहरी सांस ली। सांस को कुछ देर रोककर रखा, फिर धीमे से छोड़ा और बोली, “मज़ा आ गया।’ आंखें खोलकर कहा, ‘डॉक्टरजी, बस सांसें आसानी से लेते रहना है बिना वेंटीलेटर केे। बिना वेंटीलेटर के मिलने वाली हर सांस में मुझे मज़ा आता है।’ फिर मैंने भी यही किया गहरी सांस ली। मुझे ऐसा करते देख वह खिलखिलाई।

मेरा प्रश्न ‘क्या बनना है’ बचकाना था और उसका उत्तर सयाना। जिं़दगी का महत्वपूर्ण पाठ आसानी से पढ़ा गई वह नन्ही टीचर।

क्या बनना था और क्या बनेंगे ये बाद की बात है/ हर सांस का मज़ा लीजिए जब तक सांसें साथ हैं…

कुछ पल सांसों का आनंद

सांसें हमारे मस्तिष्क में मौजूद एक हिस्से ब्रेन स्टेम से संचालित होती हैं। जीवन के लिए महत्वपूर्ण यह प्रक्रिया स्वत: होती है। यानी इसके लिए सोचकर प्रयास नहीं करना पड़ता। देखिए, जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण चीज़ कितनी आसानी से अनवरत आपको मिल रही है। दिनभर में कुछ मिनट अपनी इन सांसों का आनंद लेने को समर्पित करें।

आंखें बंद करें एवं सांस लेने की संपूर्ण प्रक्रिया को महसूस करें। धीमे-धीमे सांसों को भीतर जानें दें, गहरी सांस। सांस अंदर लेने की इस प्रक्रिया में महसूस करें कि जीवनदायिनी ऑक्सीजन माथे से होते हुए सम्पूर्ण मस्तिष्क में समा रही है, मस्तिष्क की कोशिकाओं को शांत, सुखी और स्वस्थ बना रही है। कुछ देर गहरी सांस फेफड़ों में भरकर धीमे-धीमे छोड़ें। पूरी सांस छोड़ने के बाद एक बार फिर सांस लें, धीमे-धीमे। ऑक्सीजन को मस्तिष्क में पहुंचता हुआ महसूस करें। इस तरह से रोज़ाना दस से बीस सांस आप कभी भी लें, बैठे हुए या लेटे हुए। धीमे-धीमे आपका मस्तिष्क शांत, ख़ुशहाल महसूस करने लगेगा। मैं स्वयं यह प्रक्रिया करता हूं और इसे मैंने ऑक्सीजन मेडीटेशन का नाम दिया है। बच्चे भी इसे कर सकते हैं।

सांसों और दिल को बेहतर स्वास्थ्य देने के लिए खेल, व्यायाम एवं संतुलित भोजन अहम है। इन्हें अपने जीवन का हिस्सा बनाएं। इसके अलावा, धूम्रपान से दूर रहें, प्रदूषित वातावरण में ज़्यादा देर रहने से बचें, धूल-धुएं के क्षेत्र में मास्क का प्रयोग करें और ठंडी या गर्म हवाओं से बचने के प्रबंध करके चलें। इस मामले में यह न सोचें कि मैं तो जवान हूं, पूर्णत: स्वस्थ हूं, मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। कुछ भी ऐसा न करें जिससे श्वसन तंत्र को बेवजह कष्ट हो।

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